<strong>रायगढ़।</strong> इप्टा रायगढ़ के वार्षिक नाट्य समारोह का उद्घाटन बुधवार को पॉलिटेक्निक ऑडिटोरियम में हुआ। शहीद नंदकुमार पटेल विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ ललित कुमार पटेरिया द्वारा द्वीप प्रज्वलित कर नाट्य समारोह का शुभारंभ किया गया। सर्वप्रथम कुलपति ने इप्टा के दिवंगत साथी अजय आठले को श्रद्धांजलि अर्पित की। डॉ पटेरिया ने कहा कि नंदकुमार पटेल जी ने समय समय पर इप्टा का भरपूर समर्थन किया है और कुलपति होने के नाते मैं भी आपको अपने सहयोग का आश्वाशन देता हूँ। इप्टा ने नाट्य कला को जीवंत रखा है आपको बहुत बहुत शुभकामनाएं। इप्टा के संरक्षक मुमताज़ भारती ने इप्टा की रंगयात्रा पर प्रकाश डाला और इप्टा के शुरुआती सफर के अनुभव साझा किए। छत्तीसगढ़ इप्टा कोषाध्यक्ष बालकृष्ण अययर ने नाट्य समारोह के आयोजन के लिए रायगढ़ इप्टा के साथियों को सराहा और शुभकामनाएं दी।
<strong>पहले दिन असमंजस बाबू का मंचन</strong>
नाट्य समारोह के पहले दिन इप्टा रायगढ़ के असमंजस बाबू की आत्मकथा का मंचन हुआ। यह एक एकल नाटक है। यह मूलतः एक रंग कोलाज है जो अमृता प्रीतम और सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कहानियों और ओशो की टिप्पणियों पर आधारित था। नाटक आज के समय मे तेज भागती जिंदगी में गम होती इंसानियत का समसामयिक सामाजिक और राजनैतिक विसंगतियों के माध्यम से बखूबी चित्रण करता है। मंच पर युवराज सिंह ने असमंजस बाबू के चरित्र को बखूबी निभाया। प्रकाश व्यवस्था श्याम देवकर और रवि शर्मा की थी।
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<strong>आज होगा संक्रमण का मंचन</strong>
दुनिया मे प्रेम और इसके संक्रमण की कथा एक जैसी है कालांतर मे संयुक्त परिवार से एकल परिवार मे विघटित होने का दुःख या सुख भी एक जैसा है. संक्रमण सिर्फ बीमारियों का नही हुआ करता यह संस्कारों और जिम्मेदारियों का भी होता है. पारिवारिक संबंधों के ताने-बाने से बुनी हुई प्रसिद्ध कथाकार कामतानाथ की कहानी “संक्रमण” का कथानक घर घर की कहानी है. पिता- पुत्र के बीच द्वंदात्मक रिश्ते को दर्शाती ये कहानी “संक्रमण” का नाट्य रुपांतरण हम सब की कहानी है. कहते हैं इतिहास अपने आप को दुहराता सा प्रतीत होता है,पर उसके पात्र, परिस्थितियां और समय अलग अलग होते हैं । एक पिता जो अपने पुत्र से इसलिए असंतुष्ट हैं क्योंकि पिता के जीवन मूल्य के अनुरूप वो खरा नहीं उतरता है. पिता का ये कथन कि ये घर बर्बाद होकर रहेगा पिता की चेतावनी है, वहीं बदले हुए माहौल में बेटे को पिता की चिंता गैर जरूरी लगती है,”पिता जी सठिया गए हैं” ये उसका प्राथमिक और अंतिम निष्कर्ष है. पिता के मृत्यु के बाद मां का आत्मगत बयान कि बेटा जो कभी पिता का मजाक उड़ाता था उनके जाने पर कितना बदल गया है, वो तो उनके मृत्यु के समाचार को बर्दाश्त नहीं कर पा रहा था,और हिंसा पर उतारू था. उसने कोई कोशिश नहीं छोड़ी, पिता के इलाज़ मे.
अब मां का स्वयं से यह कहना कि बेटे को क्या हो गया है,वह तो एकदम अपने पिता जैसा व्यवहार करने लगा है, मध्य वर्गीय दिनचर्या में रोजमर्रा के काम में बेटे का पिता की तरह हो जाना उनके जाने के बाद व्यवहार करना एक संक्रमण की तरह ही तो है।
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