रायगढ़

श्रद्धांजलि – शब्दों के साधक : गुरुदेव काश्यप चौबे

रायगढ़। 11 अगस्त 2016 यह तारीख मेरे लिए सिर्फ़ कैलेंडर का एक अंक नहीं, बल्कि मेरे जीवन का वह विशिष्ट पन्ना है, जिस पर स्मृतियों की गहरी स्याही कभी सूखती नहीं। जी हाँ नौ वर्ष पहले का यही वह दिन था, जब मेरे पापा जी – गुरुदेव काश्यप चौबे हमेशा हमेशा के लिए इस जीवन से हमे अकेला छोडकर रुखसत हो गए थे और इसके साथ ही 5 दशकों तक लोगों के दिलों को झकझोरने वाली उनकी लेखनी उनके शब्द भी सदा के लिए मौन हो गए थे। संयोग देखिए, उनका जन्म 15 अगस्त , स्वतंत्रता दिवस पर हुआ था और वह हमेशा से ही आजाद ख्याल परिंदे की तरह ही अपने शब्दों की बाजीगरी से लोगों को आकर्षित करते रहे , और एक दिन इतनी ही बेफिक्री से वे अपने जन्मदिन से केवल चार दिन पहले ही हम सबसे विदा हो गए। वे मेरे लिए केवल पिता नहीं, बल्कि जीवन के गुरु, विचारों के दीप और शब्दों के जादूगर मेरे आदर्श सब कुछ थे। गुरुदेव काश्यप चौबे निर्विवाद रूप से अविभाजित मध्यप्रदेश के ख्यातिलब्ध संपादक, साहित्यकार और अनुवादक थे — उनकी पीढ़ी के जीवित पत्रकार आज भी इसे स्वीकारते हैं।
15 अगस्त 1935 को रायगढ़ (तत्कालीन मध्यप्रदेश, वर्तमान छत्तीसगढ़) में एक कान्यकुब्ज ब्राह्मण परिवार में जन्म हुआ। बचपन में ही माता-पिता का साया सिर से उठ गया, लेकिन परिस्थितियों के आगे झुकने की बजाय उन्होंने शिक्षा को अपनी ढाल बनाया। उच्च शिक्षा के लिए रायपुर आए और वहीं कॉलेज के दिनों में स्व. श्यामाचरण शुक्ल (तीन बार मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री) के सान्निध्य में आए। यहीं से उनकी पत्रकारिता यात्रा दैनिक महाकौशल के साथ शुरू हुई और जल्द ही वे इसके संपादक बन गए।

उनके संपादकीय की भाषा और दृष्टिकोण इतने पैने थे कि पाठक ही नहीं, श्यामाचरण शुक्ल जैसे नेता भी उनके मुरीद थे। 1970 के दशक में उड़ीसा में मारवाड़ियों के विरुद्ध आंदोलन पर लिखा उनका संपादकीय इतना प्रभावशाली था कि आज भी उड़ीसा विश्वविद्यालय के पत्रकारिता पाठ्यक्रम में शामिल है।

जीवन में बड़े अवसर उनके पास भी आए — दिल्ली, कोलकाता, पटना जैसे बड़े शहरों से आकर्षक प्रस्ताव मिले, लेकिन उन्होंने अपना घर-आंगन नहीं छोड़ा। वे कहते थे — “मैं अपने गृह जिले से अखबार निकालना चाहता हूं, यही मेरी पहचान है।” रायपुर से बिलासपुर और फिर रायगढ़ का सफर इसी सोच का हिस्सा था। जहां भी गए, पत्रकार संगठनों के नेतृत्व में रहे — प्रेस क्लब के अध्यक्ष, पत्रकारों की गृह निर्माण समिति के अध्यक्ष, और रायगढ़ में आजीवन पत्रकार क्लब के संरक्षक रहे ।वे अविभाजित मप्र में पत्रकारों को अधिमान्यता प्रदान करने वाली समिति के सदस्य भी रहे ।
मेरे पिताजी ख्यातिलब्ध साहित्यकार
गुरुदेव (काश्यप )चौबे अविभाजित मध्यप्रदेश के उन साहित्यकारों में से एक थे, जिनके शब्दों में संवेदना के साथ-साथ समय का ताप और लेखनी में करारा प्रहार भी था।उनकी लिखी संपादकीय आम जनों से लेकर सरकार और प्रशासन तक को हिला कर रख देती थी वही उनके काव्य संग्रह भी समय से परे और सामाजिक मुद्दों पर कठोर शब्दवाण की तरह असर दिखाते थे, उनका पहला कविता संग्रह धूप का एक दिन मध्यप्रदेश शासन द्वारा सराहा भी गया और पुरस्कृत भी हुआ। उत्कल अभिशप्त में गुरुदेव जी ने उड़ीसा के भीषण अकाल और वहाँ के जनजीवन का इतना जीवंत चित्र खींचा कि पाठक भूख और पीड़ा को महसूस करने लगता था।
उन्होंने लोकप्रिय काव्य-संकलन नैवेद्य और मीठे कनेर का दरख़्त का संकलन-संपादन किया, जिसमें उनके साथ उनके समकालीन साहित्य जगत के बड़े बड़े शब्दों के जादूगर जैसे बच्चू जांजगीरी, रम्मू श्रीवास्तव, जयशंकर शर्मा ‘नीरव’, नारायणलाल परमार और सत्येंद्र गुमाश्ता और राज नारायण मिश्र और जैसे समकालीन कवियों की रचनाएँ शामिल थीं। इन संग्रहों ने हिंदी कविता की नई धारा को एक साथ पिरोया।

उनका वियतनाम पर आधारित काव्य-संग्रह आहत सूर्य देश में विशेष रूप से चर्चित रहा , इतना कि वियतनाम के तत्कालीन राष्ट्रपति ने उन्हें पत्र लिखकर अपनी भावनाएँ व्यक्त कीं और वियतनाम पर लिखने के लिए उनको साधुवाद भी दिया था। नक्सलवाद के जनक चारु मजूमदार द्वारा जब नक्सलवाद आंदोलन के मुद्दे से भटकने से आहत होकर जेल में आत्महत्या कर ली तो उनके आत्म हत्या करने की घटना पर लिखी गुरुदेव जी की कविता आज भी हिंदी कविता के इतिहास के पन्नों में दर्ज है। और एक कविगोष्ठी में जब उन्होंने इसका पाठ किया, तो पूरा सभागार स्तब्ध रह गया था, श्रोताओं के रोंगटे खड़े हो गए थे और सभागार में कुछ देर ऐसा सन्नाटा छा गया था जैसे चारु मजूमदार ने अभी इसी सभागार में फाँसी लगाई हो।
पत्रकार के रूप में उनका मानना था कि “कठिन और क्लिष्ट लिखना बहुत आसान है, लेकिन सरल और सहज शब्दों में लिखना उतना ही कठिन।”वे लेखन में अनावश्यक अंग्रेज़ी के प्रयोग के सख़्त विरोधी थे और स्थानीय बोली-बानी के शब्दों को महत्व देने के हिमायती थे। उनकी लेखनी में तर्क, तथ्य और भाव तीनों का अद्भुत संतुलन होता ऐसा था कि एक बार मदर टेरेसा भी छत्तीसगढ़ आयी तो उन्होंने अपने भाषण का अनुवाद स्थानीय भाषा में करने के लिए पिताजी को ही बुलवाया । एक प्रतियोगिता में उनका अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद अखिल भारतीय स्तर पर प्रथम पुरस्कार से चयनित हुआ था ।
वे बहुत कम बोलने वाले, अनुशासनप्रिय और अद्भुत स्मरणशक्ति के धनी के व्यक्तित्व थे। किसी विषय पर एक बार विचार बना लेते तो बिना किसी भय या मोह के उस पर अडिग रहते। सत्ता के गलियारों में उनकी कलम का बेधड़क आना-जाना था, लेकिन उन्होंने कभी पद या लाभ की आकांक्षा नहीं की और ना ही कभी किसी से मिलने किसी नेता मंत्री के पीछे भागे।अलबत्ता कलेक्टर से लेकर मुख्यमंत्री तक, लोग उनके पास विचार सुनने और सलाह लेने हमेशा आते रहते थे।
पापा जी ने हमें सिखाया कि शब्द केवल अभिव्यक्ति नहीं, परिवर्तन की शक्ति हैं। उनकी सादगी, स्पष्टता और निर्भीकता हमारे लिए केवल स्मृति नहीं, बल्कि मार्गदर्शन है। आज उनकी पुण्यतिथि पर हम उन्हें नमन करते हुए बस इतना ही कह सकते हैं कि “आपने हमें सिखाया कि लेखनी केवल कागज़ पर नहीं चलती, वह दिलों पर चलती है और पीढ़ियों तक असर छोड़ती है बशर्ते आपकी कलम में ईमानदारी ,सच्चाई और सटीक लिखने की ताकत और निडरता हो।”पापा जी का जीवन सादगी, निर्भीकता और विचार की स्पष्टता का जीवंत उदाहरण था।
आज आपकी पुण्यतिथि पर हम आप को नमन करते हुए बस यही कह सकते हैं कि-

“आपने हमें सिखाया कि शब्द केवल वाक्य नहीं, बल्कि समाज बदलने की शक्ति हैं।आपके दिए मूल्य, दृष्टि और शब्दों का संस्कार ही हमारी सबसे बड़ी विरासत है।”

(देव चौबे)

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