तकरीबन एक घंटे तक मुकम्मल तौर पर शांत किसी थियेटर में मंच पर मंचित नाटक के समापन के साथ पूरा थियेटर तालियों की गडग़ड़ाहट से गूंज उठता है तो उसका अर्थ यहीं है कि मंच पर मंचित नाटक से थियेटर में उपस्थित दर्शक अपने दिलों दिमाग के साथ एक घंटे तक बंधे हुए थे।
अवसर था पिछले दिनों जिंदल ऑडिटोरियम में मंचित एकल प्रस्तुति वाले नाटक असमंजस बाबू की आत्मकथा के मंचन का। रायपुर के ख्यातिलब्ध नाट्य लेखक अख्तर अली द्वारा लिखित एवं रायगढ़ इप्टा के संस्थापक अजय आटले द्वारा निर्देशित एकल प्रस्तुति वाले इस नाटक में असमंजस बाबू की भूमिका में रायगढ़ और छत्तीसगढ़ के मशहूर रंगकर्मी युवराज सिंह आजाद थे।
अख्तर अली के लिखे इस नाटक को रंगों का अद्भुत कोलाज कहा जा सकता है। पूरा नाटक मंच पर एकमात्र अभिनेता के संवादों का ऐसा प्रवाह है जो मौजूदा समाज के हर उस क्षेत्र से जुड़े जरूरी और बुनियादी सवालों को उठाता है। फिर वह चाहे परिवार हो, समाज हो, राजनीति का क्षेत्र हो या धर्म का। अभिनेता युवराज सिंह आजाद संवाद प्रेषण में पूरी दक्षता के साथ अपने संवादों का प्रवाह अपने समानांतर अभिनय प्रतिभा के साथ बनाये रखते हैं। संवादों के जरिये समाज में यथास्थितिवाद, रूढिय़ों और धर्मिक पांखड पर चोट पहुंचाते हैं। दरअसल असमंजस बाबू एक ऐसे समाज का प्रतिनिधित्व करते हैं जहां समाज के स्थापित परंपराओं, रूढिय़ों और दकियानूस खयालों पर सवाल उठाने वाले व्यक्ति को या तो खुद समाज से कट जाना पड़ता है या समाज उसे पागल करार देकर अलग-थलग कर देता है। असमंजस बाबू के साथ भी यहीं होता है और वे अंतत: समाज से कट कर अकेले हो जाते हंै। अपने इसी अकेलेपन के दौरान उन्हें एक कुत्ते का साथ मिल जाता है। इस कुत्ते को असमंजस बाबू अपना सबकुछ मान लेते है। नाटक को अपने मूल उद्देश्य तक लाने के लिये कुत्ते को एक हँसने वाला कुत्ता बनाया जाता है जिसकी मशहूरियत पूरे शहर में फैल जाती है। नाटक के अंत को मार्मिक बनाने के लिये कुत्ते को बेचने का सौंदा असमंजस बाबू के माध्मय से एक धनकुबेर से किया जाता है, लेकिन ऐन वक्त पर कुत्ता नहीं हँसता फिर भी सौंदा हो जाता है और कुत्ते का खरीददार असमंजस बाबू को २० लाख रूपये का चेक थमा कर चला जाता है। २० लाख का चेक मिलने के बाद असमंजस बाबू असामान्य हो जाते है तभी उनकी हालत को देखकर कुत्ता हँसने लगता है।
कुत्ते को हँसता देखकर असमंजस बाबू असमंजस में पड़ जाते है। वे सोचते हैं कि आखिर ऐसी क्या बात है कि कुत्ता हँस रहा है। तभी उनका जेहन उन्हें बताता है कि कुत्ता उन पर नहीं पूरे इंसानी समाज पर हँस रहा है और असमंजस बाबू २० लाख रूपये के चेक को फाड़ कर फेंक देते हैं। इंसानी समाज में जिस तेजी से जीवन मूल्यों का अमानवीयकरण होता जा रहा है कुत्ता उस इंसानी समाज पर हँसता है और यह बता रहा है कि तुम इंसानों से तो हम कुत्ते कहीं ज्यादा मानवीय है।
पूरे नाटक के मंचन के दौरान शुरू से अंत तक संवाद और संवाद जन्य परिस्थति के अनुकुल ध्वनि और प्रकाश की कमान इप्टा रायगढ़ के टिंकू देवांगन और श्याम भाऊ ने निहायत बेहतरीन ढंग से संभाली थी।
असमंजस बाबू की आत्मकथा नाटक की एक खासियत और भी है। एकल प्रस्तुति वाले इस नाटक में मंच पर असमंजस बाबू ही दिखलाई पड़ते है, लेकिन ऐसे भी बहुत से पात्र हैं मंच पर जिनके होने का एहसास तो दर्शकों को होता है पर वे मंच पर कभी नहीं आते। दरअसल असमंजस बाबू की आत्मकथा एक ऐसा नाटक है जिसे दर्शक आंख मूंद कर भी देख सकते हैं और अपने कानों के माध्यम से वे आंख से नहीं अपने दिमाग से नाटक देखते हैं।
– सुभाष त्रिपाठी